Thursday 2 January 2020

गढे मुर्दों को जिंदा करने के बजाय, जिंदों में जान फूंकने की कोशिश करें।


गढे मुर्दों को जिंदा करने के बजाय, जिंदों में जान फूंकने की कोशिश करें।
आदरणीय @Shrikumar Soni जी आप लिखते हैं कि ''डॉक्टर साहब इस देश के बहुत सारे संगठन अलग-अलग शौर्य दिवस मनाते हैं ।हमारे अधिकांश त्यौहार वास्तव में शौर्य दिवस ही हैं ।दशहरा भी शौर्य दिवस है होलिका भी शौर्य दिवस है और अभी लेटली 6 दिसंबर भी शौर्य दिवस के रूप में मना रहे हैं कुछ लोग। और इन शौर्य दिवसों से दिक्कत है हम अपमानित होते हैं हमारे घाव करेदे जाते हैं। हम चाहते हैं जो कष्ट जो अपमान हम लोग उठा रहे हैं उसका थोड़ा सा नमोना दुश्मन को भी मिलना चाहिए इसलिए 1 जनवरी हमारे लिए शौर्य दिवस है'' बेशक तकनीकी तौर पर आपकी कलम सत्य की बात करती हुई प्रतीत होती है, लेकिन अनेक बार चाहकर भी सत्य नहीं बोलना या बेवजह सत्य नहीं बोलना, जनहित में सत्य से बड़ा सत्य हुआ करता है। इस संदर्भ में, मैं कुछ बातें कहना चाहता हूं।
पहली बात तो यह कि व्यक्तिगत रूप से मुझे किसी के किसी दिवस मनाने या नहीं मनाने से किसी प्रकार का कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन हमारा वंचित समुदाय जिन कारणों से कमजोर होता है, उन पर लिखना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूं। जो जारी रहेगा।

दूसरी बात यह कि कालांतर में कुछ असत्यों के जनमानस ने सत्य दिल स्वीकार कर लिया है और उनके साथ जीना शुरू कर दिया है और कुछ सत्यों को असत्य मानकर जीना शुरू कर दिया है। इस कारण उन्हें उन दिवसों को मनाने से किसी प्रकार की कोई पीड़ा या अपमान की अनुभूति नहीं होती है! हां कोई 00.01 फीसदी लोग हैं, जो इस अपमान की अनुभूति से पीड़ित होने का सोशल मीडिया के जरिये अहसास कराते रहते हैं। हकीकत में उन्हें भी कोई पीड़ा नहीं है। क्योंकि मैं उनके घरों तक जाकर आया हूं और हकीकत जानता हूं। उनके प्रवेशद्वार पर गनेश स्थापित होते हैं। वास्वत में यह उनकी आस्था का सवाल बच चुका है। अत: मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है। मगर इन लोगों को इस बात का अहसास क्यों नहीं होता कि उनकी कौम के संवैधानिक हकों को सरेआम कोई और छीन रहा है। शायद यह जरूरी नहीं है या संविधान का ज्ञान नहीं है? कारण कोई भी हो मगर दोनों ही स्थिति दु:खद हैं।

तीसरी बात यह कि यदि हम पुराने जख्मों को कुरेदेंगे तो उन्हें भरने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होगी। क्या जख्मों को कुरेदने वाले इन जख्मों को भरने में सक्षम हैं? यदि जख्मों को भर नहीं सकते तो कुरेदने का अपराध क्यों? इससे क्या हासिल होगा? क्या किसी मृत इंसान को जिंदा किया जा सकता है?

चौथी बात यह कि यदि हम पुराने मुर्दों को कुरेदने में जितनी ऊर्जा खर्च कर रहे हैं, इससे आधी सी भी ऊर्जा वंचितों को सकारात्मक रीति से एक करने में लगाते तो आज भारत की सत्ता वंचितों के हाथ में होती और तब किसी प्रकार का शौर्य दिवस मनाने की या दूसरों के शौर्य दिवस मनाने पर व्यथित होने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

पांचवीं बात यह कि अभी भी वक्त है कि गढ़े मुर्दों को जिंदा करने के आत्मघाती कदम उठाने के बजाय, हम जीते जागते, लेकिन सोये हुए इंसानों को जगायें, जो मुर्दों से कम नहीं हैं, मिलकर हम सब उनमें नफरत के बजाय सकारात्मक तथा सौहार्द की जान फूंकने की कोशिश करें। यदि हम वंचितों को जगा नहीं सकते तो कम से कम हम उन्हें दूसरों के खिलाफ उकसाकर एवं भड़काकर मौत के मुंह में तो नहीं धकेलें।

आदरणीय यदि हम मिलकर अपने लक्ष्य की ओर बढने का उपाय करेंगे तो ही हमें मंजिल मिलेगी। हम दूसरों को उकसाकर, दूसरों को मजबूत ही करते हैं, जो हमारे लिये आत्मघाती विचार है। याद रहे कौओं के कोंथने से भैंसे नहीं मरा करती।

EXTRA ADDED__>>>> अंत में आपको सच का आईना दिखाने के लिये आदिवासियों की पीड़ा को भी जोड़ने को मजबूर हूं कि ''1 जनवरी 1948 की अंतरिम सरकार में कानून मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेड़कर थे, गृह मंत्री सरदार पटेलथे, जिन्होंने संविधान सभा में, जो तत्कालीन संसद भी थी, खरसावां हत्याकांड में मारे गए 30 हजार से अधिक आदिवासियों पर चर्चा तक नहीं की। बताइये इस दिन को किसके खिलाफ शर्म, शौर्य या काला दिवस मनाया जावे? साथ ही यह भी बतावें कि ऐसा करने से हमें क्या हासिल होगा?''
आगे आपकी मर्जी।
आदिवासी ताऊ डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणा
Please Join: 20-20 Mission 4 MOST
9875066111, 02.01.2020

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